Wednesday, January 15, 2014

हम पंछी उन्मुक्त गगन के


हम पंछी उन्मुक्त गगन के,
पिंजरबद्ध न गा पाऍंगे।
कनक-तीलियों से टकराकर,
पुलकित पंख टूट जाऍंगे ।
हम बहता जल पीनेवाले,
मर जाऍंगे भूखे-प्यासे।
कहीं भली है कटुक निबोरी,
कनक-कटोरी की मैदा से ।
स्वर्ण-श्रृंखला के बंधन में,
अपनी गति, उड़ान सब भूले।
बस सपनों में देख रहे हैं,
तरू की फुनगी पर के झूले ।
ऐसे थे अरमान कि उड़ते,
नील गगन की सीमा पाने।
लाल किरण-सी चोंच खोल,
चुगते तारक-अनार के दाने ।
होती सीमाहीन क्षितिज से,
इन पंखों की होड़ा-होड़ी।
या तो क्षितिज मिलन बन जाता,
या तनती सॉंसों की डोरी ।
नीड़ न दो, चाहे टहनी का,
आश्रय छिन्न-भिन्न कर डालो।
लेकिन पंख दिए हैं तो,
आकुल उड़ान में विघ्न न डालो ।

--------------शिवमंगल सिंह सुमन

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