Wednesday, January 15, 2014

तुझको या तेरे नदीश, गिरि, वन को नमन करूँ, मैं ?
मेरे प्यारे देश ! देह या मन को नमन करूँ मैं ?
किसको नमन करूँ मैं भारत ? किसको नमन करूँ मैं ?
--------------  रामधारी सिंह दिनकर 

संपूर्ण देशों से अधिक, किस देश का उत्कर्ष है
उसका कि जो ऋषि भूमि है, वह कौन, भारतवर्ष है
-------------- मैथली शरण गुप्त 

छिप-छिप अश्रु बहाने वालों, मोती व्यर्थ बहाने वालों
कुछ सपनों के मर जाने से, जीवन नहीं मरा करता है 
--------------  गोपाल दास नीरज 


कदम कदम बढ़ाये जा - Anthem of नेताजी की आज़ाद हिन्द फ़ौज
कदम कदम बढ़ाये जा, खुशी के गीत गाये जा,
ये जिंदगी है क़ौम की, तू क़ौम पे लुटाये जा। 
तू शेर-ए-हिन्द आगे बढ़, मरने से तू कभी न डर,
उड़ा के दुश्मनों का सर, जोश-ए-वतन बढ़ाये जा। 
कदम कदम बढ़ाये जा, खुशी के गीत गाये जा।
ये जिंदगी है क़ौम की, तू क़ौम पे लुटाये जा। 
--------------- कैप्टन राम सिंह

सारे जहाँ से अच्छा, हिन्दोस्तां हमारा


सारे जहाँ से अच्छा, हिन्दोस्तां हमारा,
हम बुलबुलें हैं इसकी, यह गुलिसतां हमारा। 
परबत वो सबसे ऊँचा, हमसाया आसमाँ का,
वो संतरी हमारा, वो पासवां हमारा। 
गोदी में खेलती हैं, जिसकी हज़ारों नदियाँ,
गुलशन है जिसके दम से, रश्क-ए-जिनां हमारा। 
मजहब नहीं सिखाता, आपस में बैर रखना,
हिन्दी हैं हम वतन हैं, हिन्दोस्तां हमारा। 
गुरबत में हों अगर हम, रहता है दिल वतन में
समझो वहीं हमें भी, दिल हो जहाँ हमारा
ऐ आब-ए-रौंद-ए-गंगा! वो दिन है याद तुझको
उतरा तेरे किनारे, जब कारवां हमारा
यूनान, मिस्र, रोमां, सब मिट गए जहाँ से ।
अब तक मगर है बाकी, नाम-ओ-निशां हमारा
कुछ बात है कि हस्ती, मिटती नहीं हमारी
सदियों रहा है दुश्मन, दौर-ए-जहाँ हमारा
'इक़बाल' कोई मरहूम, अपना नहीं जहाँ में
मालूम क्या किसी को, दर्द-ए-निहां हमारा
सारे जहाँ से अच्छा, हिन्दोस्तां हमारा
हम बुलबुलें हैं इसकी, यह गुलिसतां हमारा ।
---------------------- मुहम्मद इक़बाल 

और भी दूँ


तन समर्पित, मन समर्पित,
और यह जीवन समर्पित,
चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ। 
मॉं तुम्हारा ऋण बहुत है, मैं अकिंचन,
किंतु इतना कर रहा, फिर भी निवेदन,
थाल में लाऊँ सजाकर भाल में जब भी,
कर दया स्वीकार लेना यह समर्पण। 
स्वप्न अर्पित, प्रश्न अर्पित,
आयु का क्षण-क्षण समर्पित।
चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ। 
मॉंज दो तलवार को, लाओ न देरी,
बॉंध दो कसकर, कमर पर ढाल मेरी।
भाल पर मल दो, चरण की धूल थोड़ी,
शीश पर आशीष की छाया धनेरी। 
गान अर्पित, प्राण अर्पित,
रक्त का कण-कण समर्पित।
चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ। 
तोड़ता हूँ मोह का बंधन, क्षमा दो,
गॉंव मेरे, द्वार-घर, ऑंगन, क्षमा दो।
आज सीधे हाथ में तलवार दे-दो,
और बाऍं हाथ में ध्‍वज को थमा दो। 
सुमन अर्पित, चमन अर्पित,
नीड़ का तृण-तृण समर्पित,
चहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ। 
---------------- रामावतार त्यागी

कोशिश करने वालों की हार नहीं होती


लहरों से डर कर नौका, पार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की, हार नहीं होती।
नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है,
चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है।
मन का विश्वास रगों में साहस भरता है,
चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है।
आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की, हार नहीं होती।
डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है,
जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है।
मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में,
बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में।
मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की, हार नहीं होती।
असफलता एक चुनौती है, इसे स्वीकार करो,
क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो।
जब तक न सफल हो, नींद चैन सब त्यागो तुम,
संघर्ष का मैदान छोड़ मत भागो तुम।
कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की, हार नहीं होती।
--------------- हरिवंशराय बच्चन

चलना हमारा काम है

गति प्रबल पैरों में भरी
फिर क्यों रहूं दर दर खडा
जब आज मेरे सामने
है रास्ता इतना पडा
जब तक न मंजिल पा सकूँ,
तब तक मुझे न विराम है,
चलना हमारा काम है ।
कुछ कह लिया, कुछ सुन लिया
कुछ बोझ अपना बँट गया
अच्छा हुआ, तुम मिल गई
कुछ रास्ता ही कट गया
क्या राह में परिचय कहूँ,
राही हमारा नाम है,
चलना हमारा काम है ।
जीवन अपूर्ण लिए हुए
पाता कभी खोता कभी
आशा निराशा से घिरा,
हँसता कभी रोता कभी
गति-मति न हो अवरूद्ध,
इसका ध्यान आठो याम है,
चलना हमारा काम है ।
इस विशद विश्व-प्रहार में
किसको नहीं बहना पडा
सुख-दुख हमारी ही तरह,
किसको नहीं सहना पडा
फिर व्यर्थ क्यों कहता फिरूँ,
मुझ पर विधाता वाम है,
चलना हमारा काम है ।
मैं पूर्णता की खोज में
दर-दर भटकता ही रहा
प्रत्येक पग पर कुछ न कुछ
रोडा अटकता ही रहा
पर निराशा क्यों मुझे?
जीवन इसी का नाम है,
चलना हमारा काम है ।
साथ में चलते रहे
कुछ बीच ही से फिर गए
गति न जीवन की रूकी
जो गिर गए सो गिर गए
रहे हर दम,
उसी की सफलता अभिराम है,
चलना हमारा काम है ।
फकत यह जानता
जो मिट गया वह जी गया
मूंदकर पलकें सहज
दो घूँट हँसकर पी गया
सुधा-मिक्ष्रित गरल,
वह साकिया का जाम है,
चलना हमारा काम है ।

--------------- शिवमंगल सिंह 'सुमन'

हम पंछी उन्मुक्त गगन के


हम पंछी उन्मुक्त गगन के,
पिंजरबद्ध न गा पाऍंगे।
कनक-तीलियों से टकराकर,
पुलकित पंख टूट जाऍंगे ।
हम बहता जल पीनेवाले,
मर जाऍंगे भूखे-प्यासे।
कहीं भली है कटुक निबोरी,
कनक-कटोरी की मैदा से ।
स्वर्ण-श्रृंखला के बंधन में,
अपनी गति, उड़ान सब भूले।
बस सपनों में देख रहे हैं,
तरू की फुनगी पर के झूले ।
ऐसे थे अरमान कि उड़ते,
नील गगन की सीमा पाने।
लाल किरण-सी चोंच खोल,
चुगते तारक-अनार के दाने ।
होती सीमाहीन क्षितिज से,
इन पंखों की होड़ा-होड़ी।
या तो क्षितिज मिलन बन जाता,
या तनती सॉंसों की डोरी ।
नीड़ न दो, चाहे टहनी का,
आश्रय छिन्न-भिन्न कर डालो।
लेकिन पंख दिए हैं तो,
आकुल उड़ान में विघ्न न डालो ।

--------------शिवमंगल सिंह सुमन

आग जलनी चाहिए


जम गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए
मेरे सीने में नहीं, तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए

------------ दुष्यन्त कुमार

सरफरोशी की तमन्ना

----------------- राम प्रसाद बिस्मिल 

सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है,
देखना है जोर कितना बाजुए कातिल में है । 
वक्त आने दे बता देंगे तुझे ऐ आसमां,
हम अभी से क्या बतायें क्या हमारे दिल में है ।



------------------ रंग दे बसंती 

है लिये हथियार दुश्मन ताक मे बैठा उधर
और हम तैय्यार हैं सीना लिये अपना इधर
खून से खेलेंगे होली गर वतन मुश्किल में है
सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
हाथ जिनमें हो जुनून कटते नही तलवार से
सर जो उठ जाते हैं वो झुकते नहीं ललकार से
और भडकेगा जो शोला सा हमारे दिल में है
सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
हम तो घर से निकले ही थे बांधकर सर पे कफ़न
जान हथेली में लिये लो बढ चले हैं ये कदम
जिंदगी तो अपनी मेहमान मौत की महफ़िल मैं है
सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है

Tuesday, January 14, 2014

पुष्प की अभिलाषा

चाह नहीं मैं सुरबाला के, 

गहनों में गूँथा जाऊँ। 

चाह नहीं, प्रेमी-माला में, 

बिंध प्यारी को ललचाऊँ। 

चाह नहीं, सम्राटों के शव, 

पर हे हरि, डाला जाऊँ। 

चाह नहीं, देवों के सिर पर, 

चढ़ूँ भाग्य पर इठलाऊँ। 

मुझे तोड़ लेना वनमाली, 

उस पथ पर देना तुम फेंक। 

मातृभूमि पर शीश चढ़ाने, 

जिस पर जावें वीर अनेक

------माखनलाल चतुर्वेदी 

है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?


कल्पना के हाथ से कमनीय जो मंदिर बना था,
भावना के हाथ ने जिसमे वितानों को तना था,
स्वप्न ने अपने करों से था जिसे रुचि से सँवारा,
स्वर्ग के दुष्प्राप्य रंगों से, रसों से जो सना था,
ढह गया वह तो जुटाकर ईंट, पत्थर, कंकड़ों को,
एक अपनी शांति की कुटिया बनाना कब मना है?
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?

क्या हवाएँ थीं कि उजड़ा प्यार का वह आशियाना,
कुछ न आया काम तेरा शोर करना, गुल मचाना,
नाश की उन शक्तियों के साथ चलता ज़ोर किसका,
किंतु ऐ निर्माण के प्रतिनिधि, तुझे होगा बताना,
जो बसे हैं वे उजड़ते हैं प्रकृति के जड़ नियम से,
पर किसी उजड़े हुए को फिर बसाना कब मना है?
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?

बादलों के अश्रु से धोया गया नभ-नील नीलम,
का बनाया था गया मधुपात्र मनमोहक, मनोरम,
प्रथम ऊषा की किरण की लालिमा-सी लाल मदिरा,
थी उसी में चमचमाती नव घनों में चंचला सम,
वह अगर टूटा मिलाकर हाथ की दोनों हथेली,
एक निर्मल स्रोत से तृष्णा बुझाना कब मना है?
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?

क्या घड़ी थी, एक भी चिंता नहीं थी पास आई,
कालिमा तो दूर, छाया भी पलक पर थी न छाई,
आँख से मस्ती झपकती, बात से मस्ती टपकती,
थी हँसी ऐसी जिसे सुन बादलों ने शर्म खाई,
वह गई तो ले गई उल्लास के आधार, माना,
पर अथिरता पर समय की मुसकराना कब मना है?
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?
हाय, वे उन्माद के झोंके कि जिनमें राग जागा,
वैभवों से फेर आँखें गान का वरदान माँगा,
एक अंतर से ध्वनित हों दूसरे में जो निरंतर,
भर दिया अंबर-अवनि को मत्तता के गीत गा-गा,
अंत उनका हो गया तो मन बहलने के लिए ही,
ले अधूरी पंक्ति कोई गुनगुनाना कब मना है?
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?

हाय, वे साथी कि चुंबक लौह-से जो पास आए,
पास क्या आए, हृदय के बीच ही गोया समाए,
दिन कटे ऐसे कि कोई तार वीणा के मिलाकर,
एक मीठा और प्यारा ज़िन्दगी का गीत गाए,
वे गए तो सोचकर यह लौटने वाले नहीं वे,
खोज मन का मीत कोई लौ लगाना कब मना है?
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?

---- हरिवंश राय बच्चन 

अग्नि-पथ

वृक्ष हों भले खड़े,
हों घने, हों बड़े,
एक पत्र छाँह भी,
मांग मत! मांग मत! मांग मत!
अग्निपथ! अग्निपथ! अग्निपथ!

तू थकेगा कभी,
तू थमेगा कभी,
तू मुड़ेगा कभी,
कर शपथ! कर शपथ! कर शपथ!
अग्निपथ! अग्निपथ! अग्निपथ
!

यह महान दृश्य है,
चल रहा मनुष्य है,
अश्रु-स्वेद-रक्त से,
लथ-पथ! लथ-पथ! लथ-पथ!
अग्निपथ! अग्निपथ! अग्निपथ!

---- हरिवंश राय बच्चन 

Monday, January 13, 2014

शक्ति और क्षमा

क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल, सबका लिया सहारा। 
पर नर व्याघ्र सुयोधन तुमसे, कहो कहाँ कब हारा?

क्षमाशील हो ॠपु-सक्षम, तुम हुये विनत जितना ही। 
दुष्ट कौरवों ने तुमको, कायर समझा उतना ही। 

अत्याचार सहन करने का, कुफल यही होता है। 
पौरुष का आतंक मनुज, कोमल होकर खोता है। 


क्षमा शोभती उस भुजंग को, जिसके पास गरल है। 
उसका क्या जो दंतहीन, विषरहित विनीत सरल है। 


तीन दिवस तक पंथ मांगते, रघुपति सिंधु किनारे। 
बैठे पढते रहे छन्द, अनुनय के प्यारे प्यारे। 

उत्तर में जब एक नाद भी, उठा नही सागर से। 
उठी अधीर धधक पौरुष की, आग राम के शर से। 

सिंधु देह धर त्राहि-त्राहि, करता गिरा शरण में। 
चरण पूज दासता गृहण की, बंधा मूढ़ बन्धन में। 

सच पूछो तो शर में ही, बसती है दीप्ति विनय की। 
संधि-वचन सम्पूज्य उसीका, जिसमे शक्ति विजय की। 



सहनशीलता, क्षमा, दया को, तभी पूजता जग है। 
बल का दर्प चमकता उसके, पीछे जब जगमग है। 


--------रामधारी सिंह “दिनकर

मेरी मंज़िल

न जाने क्यूँ ? बचपन से ही दूर रही है, मुझसे मेरी मंज़िल । यत्न भी करता रहा,  गिरता- पड़ता- उठता- चलता रहा । मंज़िल मिलने के भ्रम में, क्या म...