सुर्ख दृगों को सींच,
सोती पलकों के बीच,
काश!!
कुछ नए ख्व़ाब बुन पाता।
यही सोच कर बस
हर लम्हा थम जाता।
पर आज, न जाने क्यों?
कुछ एहसास हो रहा,
मंज़िल मिलने का आभास हो रहा।।
थक गया बहुत चलते-चलते,
पाषाणों से पल-पल लड़ते,
फिर भी यही सोचता रहा,
काश!!
दो डग और चल पाता।
पर आज, न जाने क्यों?
कुछ एहसास हो रहा,
मंजिल मिलने का आभास हो रहा।।
----राजेश मीणा बुजेटा
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