Monday, November 26, 2012

काँच का टुकड़ा

नज़रों के पर्दों से परे,
ख्वाबों के आसमां से दूर,
फेंका हुआ था कोने में,
काँच का एक टुकड़ा।

पर टूट कर भी बिखरा नहीं  था,
हौंसला उसका,
धार पैनी और पाकर,
खुरदरी सतह पर,
हो गया खूंखार, हिंसक, 
और भी बलवान।

कभी गुस्से में चमकता, 
बहुत तेज,
की चौंधिया जाती ,
दूधिया रौशनी में, 
आंखे मनुज की।
तो कभी,
सूरज की सतेज किरणों को,
परावर्तित, भ्रमित कर,
जन्म देता सात वर्णों को।

------ राजेश मीणा बुजेटा 

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