सूरज की गुनगुनी धूप,
और उसमे समाहित उर्जा,
माघ की शीत में भी,
बादलों को चीर,
ऊँचे पेड़ों की पत्तियों से छन - छन कर,
और भी शुद्ध होकर ,
खिड़की के कांच को विदीर्ण कर,
परदे की ओट से निकलकर,
कमरे में आ जाती ।
फिर प्यार से उसे ताकती,
उसके गाल को सहलाती,
आँखों को मसलती,
होंठो को छूती,
माथे को चूमती,
और धीरे से उसे जगा जाती ।
सूरज की धूप,
माघ की शीत में भी,
उसे जगा देती।।
---------- राजेश मीणा बुजेटा
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