मेरी परछाई और मैं,
एक ही तो हैं।
पूरक एक दूसरे के।
वो समाई है कहीं,
मेरे ही भीतर।
पर फिर भी,
कभी लडती है,
कभी झगडती है,
रूठने-मनाने की रस्म निभाती है,
मेरी परछाई ।
एक ही तो हैं।
पूरक एक दूसरे के।
वो समाई है कहीं,
मेरे ही भीतर।
पर फिर भी,
कभी लडती है,
कभी झगडती है,
रूठने-मनाने की रस्म निभाती है,
मेरी परछाई ।
दुपहर की तपती धूप में,
कभी पास आती,
तो कभी दूर जाती है,
इसी तरह दिन भर,
लुका- छिपी का खेल खेलती।
कभी स्थिर, शांत, कभी चंचल,
तो कभी अदृश्य ।
अनेकों रूप धरती है,
मेरी परछाई ।
परंतु रात की खामोशी में,
सन्नाटे की परत के बीच,
ओस की बूंदो से हो तर,
अंधेरे में डरी सहमी सी,
लिपट जाती है मुझसे।
खूब कस के।
और रात भर,
सीने से चिपककर,
चैन से सोती है,
मेरे साथ।
मेरी परछाई ।।
कभी पास आती,
तो कभी दूर जाती है,
इसी तरह दिन भर,
लुका- छिपी का खेल खेलती।
कभी स्थिर, शांत, कभी चंचल,
तो कभी अदृश्य ।
अनेकों रूप धरती है,
मेरी परछाई ।
परंतु रात की खामोशी में,
सन्नाटे की परत के बीच,
ओस की बूंदो से हो तर,
अंधेरे में डरी सहमी सी,
लिपट जाती है मुझसे।
खूब कस के।
और रात भर,
सीने से चिपककर,
चैन से सोती है,
मेरे साथ।
मेरी परछाई ।।
----------- राजेश मीणा बुजेटा