हृदय वेदना,
चीत्कार करती,
अँधेरी, काली, भयानक गुफ़ा में।
उस छोर पर,
प्रकाश का आभास,
विचलित करता,
आँख बंद कर,
बेड़ियों को तोड़,
उस छोर से कूद जाना,
वृहद् प्रकाशित सागर में,
एक कल्पना भर थी ।
कई अरसे हुए,
परत दर परत चढ़ी,
समय की,
शांत है अब,
ज़ंज़ीर से बंधी वो वेदना।
मगर धधक रही है भीतर,
और भीतर,
और तेज़,
उस दिन के इंतज़ार में,
जब और उग्र,
हो और भीषण,
उस कल्पना को,
यथार्थ का चुम्बन करेगी,
वो हृदय वेदना ॥
-------- राजेश मीणा 'बुजेटा'
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