वो ऊँची दीवार,
बड़े मोटे पत्थरों की,
थी उसे घेरे, चारों ओर से।
लाख कोशिश की परन्तु ,
लाँघ न सका।
उसके घेरे में बस यूँही,
दिन - रात काटता रहा।
वो दीवार उसे रोकती रही,
बाहर झाँकने से,
सोचता रहा वो,
क्या है आखिर उस पार?
संकीर्ण सोच में घिरता,
स्वयं बंधन में बंधता।
क्या लोग मुझी-से है?
क्या सोच यही इक है?
क्या दीवारों से घिरे,
और लोग भी तड़पते है?
जब सोच-सोच कर थक गया
तब उसके घेरे में फिर,
बस यूँहीं वो,
दिन-रात काटता रहा।
वो ऊँची दीवार,
कहीं-कहीं दरारों से युक्त,
देती पनाह,
कुछ कीट-पतंगों और खगों को।
उनमें पैर रखकर,
उँगलियों से पकड़कर दरारों को,
वो ऊपर चढ़ने लगा,
अचानक पैर फिसला, हाय!!
खून भी कुछ बूँद टपका।
उसके घेरे में फिर,
बस यूँही वो,
दिन-रात काटता रहा।
फिर देखा एक खग को,
उस दीवार पर बैठ चुगते,
और पंख फैलाकर,
दूर कहीं जा उड़ते।
साहस बंधा, हिम्मत जुटा,
वो खड़ा हुआ,
फिर उभरते पत्थरों पर पैर रख,
दरारों को पकड़ उँगलियों से,
एक अंतिम बार,
चढ़ने लगा ऊपर।
हथेलियाँ जलने लगी,
पैर छिलने लगे,
पसीने से तर,
लहू से लथ-पथ,
पर रुका नहीं वो।
और अंत में आखिर,
फ़तेह कर ही ली उसने,
मोटे बड़े पत्थरों की,
वो ऊँची दीवार।।
-----राजेश मीणा बुजेटा।।