Thursday, April 18, 2013

मंज़िल मिलने का........

सुर्ख दृगों को सींच,
सोती पलकों के बीच,
काश!!
कुछ नए ख्व़ाब बुन पाता।
यही सोच कर बस

हर लम्हा थम जाता।
पर आज, न जाने क्यों?
कुछ एहसास हो रहा,
मंज़िल मिलने का आभास हो रहा।।


थक गया बहुत चलते-चलते,
पाषाणों से पल-पल लड़ते,
फिर भी यही सोचता रहा,
काश!!
दो डग और चल पाता।
पर आज, न जाने क्यों?
कुछ एहसास हो रहा,
मंजिल मिलने का आभास हो रहा।।




----राजेश मीणा बुजेटा 

Monday, April 15, 2013

वो ऊँची दीवार

वो ऊँची दीवार,
बड़े मोटे पत्थरों की,
थी उसे घेरे, चारों ओर से।
लाख कोशिश की परन्तु ,
लाँघ न सका।
उसके घेरे में बस यूँही,
दिन - रात काटता रहा।

वो दीवार उसे रोकती रही,
बाहर झाँकने से,
सोचता रहा वो,
क्या है आखिर उस पार?
संकीर्ण सोच में घिरता,
स्वयं बंधन में बंधता।
क्या लोग मुझी-से है?
क्या सोच यही इक है?
क्या दीवारों से घिरे,
और लोग भी तड़पते है?
जब सोच-सोच कर थक गया
तब उसके घेरे में फिर,
बस यूँहीं वो,
दिन-रात काटता रहा।

वो ऊँची दीवार,
कहीं-कहीं दरारों से युक्त,
देती पनाह,
कुछ कीट-पतंगों और खगों को।
उनमें पैर रखकर,
उँगलियों से पकड़कर दरारों को,
वो ऊपर चढ़ने लगा,
अचानक पैर फिसला, हाय!!
खून भी कुछ बूँद टपका।
उसके घेरे में फिर,
बस यूँही वो,
दिन-रात काटता रहा।

फिर देखा एक खग को,
उस दीवार पर बैठ चुगते,
और पंख फैलाकर,
दूर कहीं जा उड़ते।
साहस बंधा, हिम्मत जुटा,
वो खड़ा हुआ,
फिर उभरते पत्थरों पर पैर रख,
दरारों को पकड़ उँगलियों से,
एक अंतिम बार,
चढ़ने लगा ऊपर।

हथेलियाँ जलने लगी,
पैर छिलने लगे,
पसीने से तर,
लहू से लथ-पथ,
पर रुका नहीं वो।
और अंत में आखिर,
फ़तेह कर ही ली उसने,
मोटे बड़े पत्थरों की,
वो ऊँची दीवार।।


-----राजेश मीणा बुजेटा।।

मेरी मंज़िल

न जाने क्यूँ ? बचपन से ही दूर रही है, मुझसे मेरी मंज़िल । यत्न भी करता रहा,  गिरता- पड़ता- उठता- चलता रहा । मंज़िल मिलने के भ्रम में, क्या म...