न जाने क्यूँ ?
बचपन से ही दूर रही है,
मुझसे मेरी मंज़िल ।
यत्न भी करता रहा,
गिरता- पड़ता- उठता- चलता रहा ।
मंज़िल मिलने के भ्रम में,
क्या मरीचिका से ही,
बेवजह प्रेम करता रहा?
जब-जब लगा कि अहा !
मैं आ गया, पहुँच गया,
मंज़िल के उच्च शिखर पर।
तब-तब न जाने क्यूँ, कहाँ से ?
झंझावातों के वेग में,
मैं बह गया, उड़ गया।
और फिर वही पर आ गया,
जहां से शुरू हुआ था,
शायद सफ़र मेरा।
मैं गिरता हूँ, पड़ता हूँ,
कभी टूटकर बिखरता हूँ ?
क्या वास्तव में ?
या मरीचिका खेलती है, लुकाछिपी ?
क्योंकि कभी तो,
मंज़िल की गोद में सोता हूँ,
सर रख कर निश्चिंत ।
पर कभी सपने में टूटती निद्रा,
आँख मलकर देखता हूँ,
कहाँ मंज़िल, कहाँ गोदी? कहाँ बेफ़िक्री ?
यहाँ तो जाल है,
मरीचिका का।
और मंज़िल?
वो आज भी, कहीं दूर
झिलमिलाती सी दिखाई पड़ती है ।
मुस्कराती है,
मरीचिका के भ्रम को
तोड़ने को उकसाती है ।
और पास जाने पर,
फिर कहीं छिप जाती है।
मुझसे मेरी मंज़िल ।
- - - - - - राजेश मीणा बुजेटा
(20.11.2024)