Monday, December 30, 2024

मेरी मंज़िल

न जाने क्यूँ ?

बचपन से ही दूर रही है,

मुझसे मेरी मंज़िल ।


यत्न भी करता रहा, 

गिरता- पड़ता- उठता- चलता रहा ।

मंज़िल मिलने के भ्रम में,

क्या मरीचिका से ही,

बेवजह प्रेम करता रहा? 


जब-जब लगा कि अहा !

मैं आ गया, पहुँच गया,

मंज़िल के उच्च शिखर पर।

तब-तब न जाने क्यूँ, कहाँ से ?

झंझावातों के वेग में,

मैं बह गया, उड़ गया। 

और फिर वही पर आ गया, 

जहां से शुरू हुआ था, 

शायद सफ़र मेरा।


मैं गिरता हूँ, पड़ता हूँ, 

कभी टूटकर बिखरता हूँ ? 

क्या वास्तव में ? 

या मरीचिका खेलती है, लुकाछिपी ?

क्योंकि कभी तो,

मंज़िल की गोद में सोता हूँ,

सर रख कर  निश्चिंत ।

पर कभी सपने में टूटती निद्रा,

आँख मलकर देखता हूँ,

कहाँ मंज़िल, कहाँ गोदी? कहाँ बेफ़िक्री ? 

यहाँ तो जाल है,

मरीचिका का।


और मंज़िल?

वो आज भी, कहीं दूर 

झिलमिलाती सी दिखाई पड़ती है ।

मुस्कराती है,

मरीचिका के भ्रम को 

तोड़ने को उकसाती है ।

और पास जाने पर,

फिर कहीं छिप जाती है। 

मुझसे मेरी मंज़िल ।


- - - - -  - राजेश मीणा बुजेटा

(20.11.2024)

मेरी मंज़िल

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