भूखे पेट, नंगे पाँव,
मैले कुचैले से कपड़े तन पर,
मंज़िल थी कोसो दूर,
चलने की आदत पड़ गई।
खाने को दाना नहीं, और
करने को कुछ काम नहीं,
ख़फ़ा तो ज़िंदगी पहले से थी,
पर मौत भी अब रूठ गई।
हम बंजारे, बेघर से दिनभर,
भटकते रहे यहाँ से वहाँ,
कोई ठौर नहीं रहने की,
और रात लम्बी हो गई ।
गठरी में सत्तू, सूखी रोटी,
लिए सफ़र पर चल दिए ।
दिन में तो धूप थी ही मगर,
अब शाम बोझिल हो गई ।
नाज़ुक सी डोर साँसों की,
कब चलते चलते छूट गई ?
इंसान तो मरते थे पहले भी,
पर अब इंसानियत ही मर गई।
- - - - राजेश मीणा बुजेटा