Saturday, July 27, 2013

आ मेरे संग चल-II

बाहें फैला कर बुलाती,
ये हसीं वादियाँ,         
और दूर तक फैला समंदर,
जैसे कर रहा जय गान,
कल-कल करती, संगीत सुनाती,
नदी की लहर के संग चल,
आ मेरे संग चल।
  
अनजान अनभिज्ञ राहों पर,
एक हमसफ़र को ढूँढता,
और खोज में मंजिल सुबह से,
सांझ तक तू ठेलता,
इस लम्बी डगर पर भी,
इक नया जोश ले चल,
आ मेरे संग चल।


                   ----राजेश मीणा बुजेटा

Saturday, July 20, 2013

आ मेरे संग चल

सूरज ढल जाए तो क्या?
अँधियारा हो जाए तो क्या?
लाख ठोकरें लगे तुझे पर,
अपने पसीने से,
एक दीप जला कर चल,
आ मेरे संग चल।

संग छोड़ गए तेरा तो क्या?
पड़ गया अलग-थलग तो क्या?
काँप रहा है आज हृदय पर,
झुलसती रेत मे रख कदम,
छोड़ एक नयी लकीर तू चल,
आ मेरे संग चल।

मुह फेर गयी मंजिल तो क्या?
किस्मत रूठ गयी तो क्या?
अभी हार का स्वाद चखा पर,
आँखों मे ले नया स्वप्न तू,
एक नयी दिशा मे चल,
आ मेरे संग चल।

उठ नहीं रहे कदम तो क्या?
खिच नहीं रही देह तो क्या?
अभी चूर हो बैठ गया पर,
छोड़ लगाम हृदय-अश्वों की,
पंख लगा मन उड़ने दे चल,
आ मेरे संग चल।
आ मेरे संग चल।।


     ----- राजेश मीणा बुजेटा

मेरी मंज़िल

न जाने क्यूँ ? बचपन से ही दूर रही है, मुझसे मेरी मंज़िल । यत्न भी करता रहा,  गिरता- पड़ता- उठता- चलता रहा । मंज़िल मिलने के भ्रम में, क्या म...