Tuesday, June 11, 2013

मोह के बंधन बहुत हैं....

ज़मी को छोड़ कर,
आकाश छूने की तमन्ना,
अरसों से दिल में छुपी है,
पर बाँधती कुछ डोरियाँ हैं,
पाँव को,
ज़मी में धँसे खूँटे से,
मोह के बंधन बहुत हैं।।


--- राजेश मीणा 'बुजेटा'

मेरी मंज़िल

न जाने क्यूँ ? बचपन से ही दूर रही है, मुझसे मेरी मंज़िल । यत्न भी करता रहा,  गिरता- पड़ता- उठता- चलता रहा । मंज़िल मिलने के भ्रम में, क्या म...