Sunday, August 26, 2012

काफिला चल पड़ा

According to the tune of the time, I would like to dedicate a self written poem to all my 87th batchmates. Do enjoy....


कई अरसो से रुका था,
धुल में कुछ था सना सा,
अभीष्ट वर की चाहत में,
झंझावातो से लड़ता था,
आज मगर,
अरुणोदय की लालिमा में,
आंख मसलकर देखा तो पाया,
कि वो काफिला चल पड़ा ।।

यत्न वो करता निरंतर,
क्षण - क्षण, प्रतिदिन, प्रतिपल,
मरुभूमि की मरीचिका में,
पर हर बार विफल हो जाता,
आज मगर,
सावन की रिमझिम के बाद,
सोंधी मिटटी की खुशबू से तृप्त,
मुड़कर देखा तो पाया,
कि वो काफिला चल पड़ा।।


एक नई डगर,
एक नया सफ़र,
बेचैन मगर है मेरा मन,
एक नया जोश,
एक नया धेय्य,
आह्लादित भी है मेरा तन।

वह दृश्य मै देखता रहा,
तिमिर छटता रहा,
प्रशस्थ मार्ग होता रहा,
फिर महसूस हुआ,
कि यक़ीनन,
वो काफिला चल पड़ा।।।

------राजेश मीणा बुजेटा

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